जनता के मन-मस्तिष्क पर इंदिरा की अमिट छाप उनके जन्म के 102 साल बाद भी धुंधली नहीं होती

इंदिरा गांधी के जन्म को 102 साल हो गए, लेकिन जनता के मन- मस्तिष्क पर उनकी ऐसी अमिट छाप है कि वह धुंधली नहीं होती। राजनीति से हट कर इंदिरा ने देश की सुरक्षा और अखंडता के लिए ठोस काम किया। 1971 का भारत-पाक युद्ध इसका जीवंत उदाहरण है। आज जब राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय सुरक्षा जैसे मुद्दों पर कांग्रेस बचाव की मुद्रा में दिखाई देती है तब उसे इंदिरा गांधी का आदर्श सामने रख उनके जीवन और कर्मों से प्रेरणा लेनी चाहिए। 1971 के भारत-पाक यद्ध में इंदिरा गांधी ने जिस धैर्य और हौसले से काम लिया उसकी मिसाल बेमिसाल है। उन्होंने न सिर्फ यह युद्ध जीता, बल्कि बड़ी चतुराई से पाकिस्तान को दो भागों में विभाजित भी कर दिया। पड़ोसी देश के इस बंटवारे से जो नया देश यानी बांग्लादेश अस्तित्व में आया, वह पाकिस्तान की 60 प्रतिशत से ज्यादा आबादी वाला था। पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले एक करोड़ से ज्यादा शरणार्थियों का बोझ झेलते हुए इंदिरा गांधी ने विस्तत योजना बनाई। उन्होंने भारतीय सैन्य प्रमुखों को तैयारियों के लिए पूरी स्वतंत्रता के साथ समय भी दिया और तमाम जरूरी संसाधन उपलब्ध कराए। उनकी सिर्फ एक शर्त थी कि यह जंग जल्द निपट जन्म के बात से मुकर जानी चाहिए ताकि उसे लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई बखेड़ा न खड़ा हो और न ही किसी दूसरे देश को हस्तक्षेप का मौका मिल सके। असली जंग 3 दिसंबर 1971 को शुरू हुई, लेकिन इससे महीनों पहले 27 मार्च 1971 को लोकसभा में उन्होंने कह दिया था कि इस तरह के नाजुक मौकों पर सरकार कम ही बोलती है। उसी दिन उन्होंने राज्यसभा में कहा, एक गलत कदम, एक गलत शब्द का असर पूरी तरह उससे भिन्न हो सकता है, जैसा कि सोचा गया है। 1971 में मार्च से अक्टबर तक छह माह से कळछ ज्यादा इंदिरा गांधी सतत सक्रिय रहीं। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय नेताओं को पत्र भेज कर भारतीय सीमाओं की स्थिति से अवगत कराया। वे मॉस्को के अलावा जर्मनी, फांस, ब्रिटेन, बेल्जियम और अमेरिका भी गईं। उन्होंने पूर्वी पाकिस्तान में जनरल टिक्का खान द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के खिलाफ दुनिया भर में जनमानस तैयार करने के हरसंभव जतन किए। उन्होंने जतन किए। उन्होंने अवामी लीग को कलकत्ता के निकट एक विस्थापित सरकार कायम करने की इजाजत तो दी, लेकिन उसे किसी तरह की मान्यता देने से मना कर दिया। जब बांग्लादेश को मान्यता देने के मामले में विपक्ष से ज्यादा शोर- शराबा होने लगा तो इंदिरा ने कहा, 'यह वक्त गैर जिम्मेदारी भरे कदम उठाने का नहीं है। तमाम पहलुओं का बारीकी से जायजा लेकर ही बांग्लादेश को मान्यता देने के बाबत कोई फैसला लिया जाएगा। पाकिस्तानी शासकों ने पूर्व पाकिस्तान के लोगों पर जो अत्याचार किए उनसे आजिज आकर ही मुक्ति वाहिनी ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए आंदोलन छेडा। इस आंदोलन को दबाने के लिए पाकिस्तान की सेना ने बर्बर तरीके अपनाए। इंदिरा ने मुनासिब वक्त का इंतजार किया। जब याह्या खां और टिक्का खां ने आपा खो दिया और 3 दिसंबर 1971 को श्रीनगर से बाड़मेर तक वायु सेना के आठ सैन्य ठिकानों को निशाना बनाया तो भारत ने पलटवार किया और इस तरह जंग की पहल के इल्जाम से बच गया। पाकिस्तान के हमले वाले दिन इंदिरा कलकत्ता में थीं। हमले की खबर मिलते ही वह राष्ट्र के नाम संदेश देने फौरन दिल्ली पहुंचीं। उन्होंने कहा कि हम पर जंग पहुंचीं। उन्होंने कहा कि हम पर जंग थोप दी गई है। देश की थल, जल व वायु सेना ने बहादुरी का प्रदर्शन करते ए दुश्मन के दांत खट्टे कर दिए। विशाखापट्टनम तट के निकट गाजी नामक पनडुब्बी को ध्वस्त कर दिया गया। वहीं कराची पर हमले जैसा इस वादाखिलाफी साहसी कदम उठाया गया। बेहद प्रभावी रणनीति और भरपूर हौसले के साथ लड़े गए इस युद्ध में भारत की विजय सुनिश्चित थी कि इस बीच अमेरिका ने दखल देने की कोशिश की। उसने अपना सातवां जहाजी बेड़ा बंगाल की खाड़ी की तरफ रवाना कर दिया। इंदिरा विचलित नहीं हुईं। चीन ने इस मामले से खुद को दूर रखा, जबकि रूस (सोवियत संघ) ने अमेरिकी यद्धक बेडे का मुकाबला करने के लिए अपना समुद्री बेड़ा रवाना कर दिया। 13 दिन की लड़ाई के बाद 16 दिसंबर को युद्ध का परिणाम आ गया। पाकिस्तान के कमांडर जनरल अमीर अब्दुल्ला खान नियाजी ने ढाका में हथियार डाल दिए। इसके बाद इंदिरा ने दुनिया के सामने यह स्पष्ट किया कि भारत की इच्छा न तो जीते हुए इलाकों पर कब्जा करने की है और न ही अपना प्रभुत्व फैलाने की। पाकिस्तान को इस तरह करारी पराजय का मजा चखाने पर तब विपक्ष के प्रथम पंक्ति के नेता अटल विपक्ष के प्रथम पंक्ति के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने दंदिरा गांधी की खुलकर तारीफ की। इस तारीफ ने इंदिरा गांधी को एक महान व्यक्तित्व के तौर पर स्थापित होने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उस समय पूरा देश इंदिरा गांधी के साथ खड़ा था।